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शनिवार, 5 सितंबर 2015

ग़ज़ल



ऐ ख़ुदा तेरी दुनिया में इतनी मुसीबत क्यों है ।
कहीं दौलत है तो कहीं इतनी ग़ुरबत क्यों है ।

हो गई रंजिशें तेरी इबादतगाहों की तामीर पे,
तेरे ही बन्दों में तेरी इतनी मुख़ालफ़त क्यों है ।

हो जाए क़त्ल रोज़ ही सच का सरेआम यहाँ,
झूट और फ़रेब की फ़िर इतनी क़ीमत क्यों है ।

ऊँच-नीच, ज़ात-पात में बँट गया इंसान यहाँ,

बँट गयी ज़मीन, बँट गए इंसान सारे यहाँ 
हमसायों में फैली हुई इतनी नफ़रत क्यों है । 

तू ही कहता है मिलूँगा हर ज़र्रे में ढूँढ ले मुझको,
फ़िर तुझे पाने के लिए इतनी इबादत क्यों है ।

हरेक बात पे जता के फ़र्क़, होगा क्या हासिल हमें, 
अमन की बात पे ऐ लोगों इतनी मुनाक़ज़त क्यों है ।  

'तन्हा' आया हूँ तन्हा ही लौट जाना है मुझे,
आज दिल में जाग रही इतनी हसरत क्यों है ।

रविवार, 19 जुलाई 2015

ग़ज़ल

न जाने कहाँ है रौशनी, न जाने कहाँ भलाई है।
किसक़दर छाया है अँधेरा और फैली बुराई है।

जल गए पत्ते, सूख गए शजर, उजड़ा ठिकाना,
किसी बेरहम ने इस जंगल में आग लगाई है।

खुद का खुद से है मुक़ाबला है आज़माइश भी,
कभी खुद से है दोस्ती और कभी लड़ाई है।

यूँ ही नहीं तय कर रहा हूँ सफ़र मंज़िल का,
इस राह में हर क़दम पे हमने ठोकर खाई है।

हमें यक़ीन है रहम और क़ुर्बानी की बातों में,
तब ही तो मैंने इस परिंदे की जान बचाई है।

या तुझको बदल दूँगा या खुद को बदल दूँगा,
हमनें भी अपनी तक़दीर से शर्त लगाई है।

टूटी है हर कोशिश लेकिन अभी हारा नहीं हूँ,
'
तनहा' मुसीबतों से लड़ने की क़सम खाई है।

©-
मोहसिन 'तनहा'

ग़ज़ल

हवाओं के भी कहाँ घर होते हैं।
बस सफ़र पर सफ़र होते हैं।

रहती हैं ख़ौफ़ज़दा कश्तियाँ,
जब तूफ़ानी समन्दर होते हैं।

छिल गया सारा बदन नदी का,
राहों में कितने पत्थर होते हैं।

और भी ठंडी हो जाती है छाँव,
जब ज़्यादा बूढ़े शजर होते हैं।

एक शै की गिरफ़्त है रात-दिन,
जाने कैसे-कैसे असर होते हैं।

मिट्टी मिल जाएगी मिट्टी में,
'
तनहा' बेचैन सोचकर होते हैं।

©-
मोहसिन 'तनहा'

ग़ज़ल

सहारा में कहाँ  कोई दरख़्त साएदार है।
तपती धूप है लेकिन सफ़र बरकरार है।

हूँ बड़ा ज़िद्दी, नहीं हारूँगा मुसीबतों से,
मुझे खुद पे इतना तो ज़रूर एतबार है।

आँखें मुद्दत से जाग रही हैं उम्मीद लिए,
अंधेरों के बाद फिर सुबह चमकदार है।

तुम दबा न पाओगे अहसानों से मुझे,
मेरी ख़ुद्दारियों का चर्चा सरेबाज़ार है।

रहे तुम्हारे पास दौलत सारे जहाँ की,
हम फ़क़ीरों के साथ दुआ बेशुमार है।

सर्द हवाओं ज़रा मुझसे टकरा के देखो,
मेरे सीने में भी एक दहकता अंगार है।

'
तनहा' तजुर्बों ने सिखाए बर्ताव कई,
तभी तो मेरा हैरतअंगेज़ किरदार है।


©-
मोहसिन 'तनहा'